तोरा मन दर्पण कहलाये ...
और कोई गाता हैं
आईने के सौ टुकड़े हमने कर के देखे हैं
एक में भी तनहा थे , सौ में भी अकेले हैं
आईने को केवल आइना ना समझ लिया जाएँ ... भाषा की, शब्दों की अपनी सीमा होती हैं ... अगर ना होती तो इतने महान ग्रन्थ एक से बढ़कर एक हैं ... जो लगातार पढ़े जा रहे हैं ... सुने और सुनाये जा रहे हैं ... नीति वाक्य और कहानियों पर कहानियां कही जा रही हैं ...
अगर शब्दों की सीमा ना होती ... भाषा की मज़बूरियाँ ना होती ... तो सारा का सारा विश्व ना जाने कब से संत होता ... कबीरदास साहब यह ना फरमाते की ... परम ज्ञानी गूंगा हो जाता हैं ... जैसे गुड का स्वाद बखान करना गूंगे के लिए कठिन हो जाता हैं ...
यहाँ आइना ... " मन " का प्रतिक हैं ... और मन को निहारने की भी कला आनी चाहिए ... नहीं तो कोई दिन-रात , बरसो बरस भी आईने के सामने क्यूँ न खड़ा रहे ...कबीरदास साहब सा निखरने से रहा .... सुकरात साहब जैसा बनने से रहा ... .. गाँधी जैसा संवरने से रहा
भला हो !!!