मातृभूमि को अपने यहाँ ही नहीं ... सम्पूर्ण विश्व में गरिमामय उच्च भावों से याद किया जाता हैं ...हमारे यहाँ मातृभूमि को स्वर्ग से ज्यादा बड़ी गरिमा दी गयी हैं ... कहीं इसे मादरे- वतन कहकर ... और कहीं मदर-लैंड से संबोधित करके इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाती हैं ... परन्तु सभी को अपनी - अपनी मातृभूमि आकर्षित करती हैं ... यह एक सर्वव्यापी भाव हैं ...
पर जब भी कोई अवसर आयें ... हम अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की हड़बड़ी में अक्सर यह मान लेते है ... और दुराग्रह की हदों से भी आगे बढकर हम यदाकदा यह सिद्ध करने लग जाते हैं कि हम ही सबसे ज्यादा " सुसंस्कृत " हैं ... और सुसंस्कृत होने पर केवल हमारी ही एक मात्र " मोनोपली " हैं ... यही अहम् भाव सुसंस्कृत होने की राह का बड़ा रोड़ा भी हैं ...यह हम कतई ना भूलें ...
अब रही बात देश की तासीर को समझाने की ... और उसे किसी उपमा के सहारे समझाने की ... तो वक्त जरुरत उसे कई तरह से उपमाओं द्वारा समझाया जाता हैं ... जैसे " एक देश जो लौह आवरण से ढँका हुआ हैं ( रूस ) "...... " विश्व गुरु " ( भारत ) ....." इंजीनियरों का देश " ( ( जर्मन ) ....
पर इसी तरह से भारत की तासीर को व्यक्त करने के लिए मधुमक्खी के छत्ते से तुलना यह बताती हैं की किस तरह एक जुट होकर हम " मधु रूपी सद्भाव बड़े जतन से " विश्व के लिए अनासक्त भाव से " बहुजन हिताय बहुजन सुखाय " खूब एकत्र करते हैं ... और यह कार्य सुचारू रूप से जारी रहे इस हेतु " रानी मक्खी " ... अपने जीवन की बाजी लगाकर भी इस काम को सतत जारी रखने का अप्रतिम योगदान देती हैं ... शहद का उपयोग कभी भी मधुमक्खियों / रानी मक्खी के कभी उपयोग नहीं आता और ना ही वह इसका उपयोग करें यह भाव रखती हैं ..... यहीं परमार्थ का भाव मधु-मक्खी के जीवन का चरम होता हैं ... और हाँ मधुमक्खी के छत्तों से कोई सद्भाव रूपी शहद चुराए या उसे नष्ट करें ... उसे तनिक भी पसंद नहीं ... वह उस दुराचार को कभी यूँ ही नहीं माफ़ करती हैं ... वह उन्हें खूब सबक सिखाती हैं ... उसकी इस छवि से दुराचारी भयभीत रहते हैं ... और उन्हें रहना भी चाहिए ... आखिर सद्भाव का सवाल हैं .. कोई मामूली बात नहीं ...!!!
... और जब भी हम विश्व गुरु बनेंगे इसी सद्भाव रूपी भाव को अपना कर ही बनेंगे ... और सही मायनों में विश्व को एक कुटुंब मानते हैं ... यह हमारी कथनी नहीं करनी का अंग बनेगा ... और विश्व हमारी कथनी खूब देख रहा है ... उसे तो हमारी "करनी" का इन्तेजार हैं ... और तभी वह विश्व - गुरु होने का दर्जा हमें देगा ... और विश्व-गुरु की उपाधि छिनने से नहीं ... अपने आप हमारी करनी के बल मिले तभी हम विश्व कल्याण के लायक होंगे ... अन्यथा चाहे जितने स्वप्न हम देखे ... यह तब तक संभव नहीं ... जब तक हमारी कथनी और करनी में समानता का पुट नहीं होगा ...
हम इस भाव के उच्च आदर्श को समझे ... हाँ , हर विषय में नकारात्मकता की खोज एक सबसे आसान काम होता हैं ... नकारात्मक होकर देश का कर्ज नहीं चुकाया जा सकता ... और चुकाना संभव भी नहीं ... हम जहाँ है वहां से सकारात्मकता को फैलाये / उसका संवर्धन करें ... यह भी देश सेवा ही हैं ...
भला हो !!!!