हमेशा सत्य का गुणगान बड़े जोर-शोर से किया जाता हैं ... " सत्य " ऐसा होता हैं ... " सत्य " वैसा होता हैं ... बताता कोई नहीं हैं " सत्य " क्या हैं ...?
बस वाणी का सत्य ही सत्य होता तो " ईश्वर " कब से सबको बड़ी आसानी मिल गया होता ... एक बार सत्य बोलता कोई और लो " ईश्वर " उसके सामने हाज़िर ... पर नहीं होता ना ... और फिर हार - हुराकर वही झूठ बोलने में इन्सान जुट ही जाता हैं ... ना ?
असल बात हैं ... और वहीँ जिम्मेवार भी हैं ... वह है हमारी सुनने की क्षमता ... जो बोला जाता हैं ... उसे सुनना फिर भी आसान हैं ... पर जो बोला ही नहीं जाता ... उसे सुनना कितना कठिन होगा ...समझ रहे हैं , ना ?
.. और " सत्य " की राह ठीक वहीँ से शुरू होती हैं ... हाँ ... वहीँ से ... अक्सर सुनते हैं कि ... दिल की आवाज सुनो !! ... दिल की आवाज सुनो !!! ... हाँ भाई ... दिल में वो हर वो बात सबसे पहले उठती हैं ... जो - जो जुबां पर आती हैं .... अब वहां कोई ऐसी - वैसी बात उठे जिसे जुबां पर लाना ठीक नहीं होगा ... तब अगर विवेक साथ रहे तो हम अपने आप को रोक सकते हैं ... अन्यथा नहीं भी रुकते कभी ... पर दिलों की हर आवाज सुनी जाती हैं ... हम उसे बोले या ना बोले ... और सचमुच सत्य वहीँ से बड़ा मतलब रखता हैं ... पूर्ण शुद्ध व्यक्ति फिर "बुद्ध" होता हैं ... उसके दिल में भी कभी गलत आवाज नहीं उठती ... उसके दिल में रंच मात्र भी किसी प्रकार का गुनाह फिर आरम्भ नहीं होता ... वाणी और काया की तो बात ही क्या ...
वाचिक कर्म सुधार लें , कायिक कर्म सुधार ।
मनसा कर्म सुधार लें , यही धर्म का सार ।।
सुने यह ग़ज़ल ... खुबसूरत हैं ... और बड़ी सहज तो है ही ... सुप्रभात ...मिलते रहेंगे !!!