एक बहुप्रचलित कहावत हैं । और साम- दाम-दंड- भेद में अत्यधिक विश्वास रखने वाले अपनी करतूतों को जस्टिफाई करने में इसका सहारा अवश्य लेते है । पर जब इसी बात का सहारा उनका विरोधी लें तो परम नैतिकता को ओढ़ लेते हैं । इससे शुरूआती सफलता तो मिलती हैं पर दोगलापन उजागर हो जाता है । विश्वसनीयता घटती जाती हैं ।
मित्रों - संसार के सबसे लोकप्रिय जननेता म. गांधी " साम-दाम-दंड और भेद " की घटिया नीति से सर्वथा दूर रहे । चंपारण की उनकी प्रथम लढाई में ही उन्हें उल्लेखनीय जीत हासिल हुई थी । नील की खेती करने वाले अंग्रेज कारोबारियों के चुंगुल में वहां के किसान बुरी तरह जकड़े हुए थे । अंग्रेज जज , अंग्रेजी अदालतें , अंग्रेजी कानून और अंग्रेज ही पुलिस थी । घोर विपरीत स्थितियां थी । उन स्थितियों में सत्य और अहिंसा के सहारे अंग्रेज सरकार को मजबूर कर देना की वो अपने फायदे के कायदे को वापस ले ले सोचना भी आसान नही था ।
पर बापू ने असीमित धैर्य, असीमित करुणा और असीमित मैत्री का सहारा लिया , साम दाम दंड भेद की घटिया नीति पर नही चलें और सफल हुए ।
आशय ये के घी सीधी ऊँगली से भी निकल सकता है , बस सत्य की आंच थोड़ी सी और अहं का झुकाव ही तो घी के पात्र को देना होता है और सहज साफ सुथरा और निरापद घी मिल जाता हैं । फिर चाहो तो पूरा पात्र खाली कर दो । और बापू ने यही तो किया सारा देश अंग्रेज मुक्त हुआ । सबने देखा ।
बापू , तुम फिर आना मेरे देश |||