दुखों से घिरा रहना भी एक प्रवृत्ति बन जाता हैं ... लत बन जाता हैं ... आदत-सी हो जाती हैं .... दुखों से बाहर निकलने का कोई मार्ग हैं ... यह ठीक से पता हो ... तब भी .... कोई - कोई दुखों से इस कदर मुहब्बत कर बैठता हैं कि उससे बाहर निकलने की बात कहो तो चिढ उठता हैं ... खीज उठता हैं ....
जैसे किसी को खुजली हो या कोई नशे की लत ही हो ... और कोई भला मानुष उसे समझाए की खुजली करने से बढती हैं या नशा नुक्सान देह होता हैं ... और कभी - कभी खून भी निकल आता हैं या जान पर भी बन आती हैं ...
तब भी ...
कभी बेहोशी में और हमेशा तो होशो-हवास में खुजली के नशे की आदत से लाचार होकर वह खुजली करने का काम कर ही जाता हैं ... या किसी दीगर नशे के अभिभूत हो ही जाता हैं ... बिना अपने नुक्सान की परवाह किये
वैसे ही निंदा भी एक नशा हैं ... जितना हो सके व्यक्तिगत निंदा से बचे ...
आओ जाने म. गांधीजी ने कभी भी किसी की व्यक्तिगत निंदा नहीं की ... इस बारें में हमारा युवा स्वयं तहकीकात करके भी इस बात की पुष्टि कर सकता हैं ...
निंदा से बचे ... निंदा आपसी सद्भाव पर घातक वार करती हैं और बैर के बीज जाने अनजाने हमारे अन्तर में बो जाती हैं ... और जैसे बीज वैसे फल यह बात तो अटल हैं ही ... सभी जानते हैं ... और उससे अधिक दिलोजान से मानते हैं
गाँधी तुम फिर आना मेरे देश !!!