शनिवार, 25 मई 2013

विनय क्या है .. ?


    #  कल्याणमित्र  सत्यनारायण गोयनका 

                           
                                  जो कर्तव्य  है वह धर्म है , जो अकर्तव्य है ,  वह अधर्म है . या यो कहें जो करणीय  है , वह धर्म है , जो अकरणीय है वह अधर्म है . आज से २६०० वर्ष पहले अकरणीय के लिए एक और शब्द प्रयोग में आता था - विनय . २६००  वर्ष के लम्बे अन्तराल में भाषा बदल जाती है , शब्द बदल जाते हैं , शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं . आज  की हिंदी में विनय कहते है विनम्रता को . विनय शब्द का एक प्रयोग प्रार्थना के लिए भी होता था . परन्तु उन दिनों की जन - भाषा में विनय कहते थे दूर रहने को , यानि वे बुरे काम जिनसे दूर रहा जाय ,विरत रहा जाय . इस अर्थ में भगवान बुद्ध की शिक्षा " धर्म और विनय " कहलाती थी . यानि वह शिक्षा जो बताती है कि क्या धर्म है ? क्या विनय है ? क्या धारण करने योग्य है ? क्या करणीय है ? और क्या अकरणीय है ?
                     
                           
                              निःसंदेह करणीय वह है जो हमें सुखी रखे . औरों को भी सुखी रखे . हमारा भी मंगल कल्याण करे, औरों का भी मंगल कल्याण  करे . और अकरणीय वह है जो हमारी भी सुख शांति भंग करे औरों कि भी सुख शांति भंग करे . इस कसौटी पर कस  कर जो कर्म किये जायं वे धर्म और जिन जिन कर्मों का त्याग किया जाय वे विनय .
                               

                           इसी समझावन में धर्म शब्द का अर्थ और बड़ा हो गया . जो करने योग्य है उसका करना तो धर्म है ही , परन्तु जो करने योग्य नहीं है उसका न करना भी धर्म है . यानि धर्म तो धर्म है ही विनय भी धर्म है. हम मनुष्य हैं . सामाजिक प्राणी हैं . हमें अनेकों के साथ रहना होता है . औरों के साथ रहते हुए हम स्वयं कुशलतापूर्वक रह सकें , तथा औरों कि कुशलता में सहयोगी बन सकें , यही आदर्श मानवी जीवन है . इसे ध्यान में रखते हुए शरीर एवं वाणी से कोई भी ऐसा कर्म न करें , जिससे औरों कि सुख शांति भंग हो , औरों का अकुशल हो, अमंगल हो.
                         

                               अपना सही सही मंगल करने के लिए हमें अपने बारें में पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त करना होती है और वह किसी से सुनकर  नहीं  और न ही मात्र  किसी पुस्तक को पढ कर.  अपने बारें में सही जानकारी हमें अपने निजी अनुभव  से करनी होती है. भगवान ने इसीलिए विपश्यना साधना का अभ्यास सिखाया . इस अभ्यास द्वारा हम अपने बारे में जानते- जानते हम अपनी समस्याओं के बारे में जानने लगते हैं और उनका उचित समाधान पाने लगते हैं . अपने दू:खों का  अपने संतापों का सरलता से निराकरण करने लगते हैं. यह सब उपदेशों से, यानि परोक्ष ज्ञान से नहीं . बल्कि प्रज्ञा से, यानि प्रत्यक्ष ज्ञान से समझ में आने लगता हैं कि शील सदाचार के नियमों को तोड़कर हम पहले अपनी सुख शांति भंग कर लेते हैं और उसके बाद ही किसी अन्य कि सुख -शांति का हनन करते हैं . और यह भी तभी समझ में आने लगता है कि शील-सदाचार का पालन करके शरीर और वाणी के दुष्कर्मों से विरत रहकर हम किसी अन्य प्राणी पर कोई एह्साह नहीं करते . वस्तुतः हुम अपने आप पर ही एहसान करते हैं . अतः शील -सदाचार का जीवन - जीना औरों के हित में हि नही  , बल्कि अपने स्वयं के हित में भी आवश्यक हैं. अनिवार्य हैं . यही धर्म हैं .
                              

                                                                अच्छा हो . यदि हम इस शुद्ध सनातन  धर्म को हिन्दू, बौद्ध , जैन , सिक्ख , मुस्लिम, ईसाई , आदि नामों से न पुकारें , इन सांप्रदायिक विशेषणों से मुक्त रखें ; जाति, गौत्र, कुल , वंश , और सर्व अहितकारिणी वर्ण विभाजक  व्यवस्था से मुक्त रखें जिससे कि मनुष्य-मनुष्य बीच प्यार में धर्म के नाम पर कोई दरार न पड़ने पाए.  इसी में सबका मंगल हैं . इसी में सबका कल्याण हैं .