दो दिल टुटे ... !!!
कैफी साहब का लाजवाब तराना ... मदन मोहन साहब की लाजवाब मौसिकी .... लता जी का सात सुरों की अमराई में अकेला निकल पड़ना ... इस उदासी से भरे गीत को दिल की गहराइयों में सीधे उतार देते है ...मानव मन की उदात्त भावनाओं को वैसे तो किसी तरह लफ़्ज़ों में बयां करना निहायत दुरूह और नाजुक काम है ... पर कभी -कभी ऐसी घटनाएँ घट ही जाती है ...जब मानव मन उदासी के सागर में हिचखोले खाता है ... बहुत सीमित संभावनाओं के सहारे जीवन नैय्या लहरों की मर्जी के सहारे चलती है ... रुख हवाओं का जिधर का होता है उधर बहती है /
जिन्दगी का सफ़र कभी तो बड़ा अनुकूल ... तो कभी बड़ा प्रतिकूल जान पड़ता है ... सदियों से ये जमीं यह सब देखती आई है ...वहीँ जाने ...कहाँ के हैं ... किधर के हम हैं / चलते रहना ही तो राहगीर का नसीब हैं ... यही करणीय है ... यहीं कृत्य है / प्रिया राजवंश का सधा हुआ , निर्मल सहज अभिनय गीत को बस दर्शनीय ही नहीं बनाता ... मन की संवेदनाओं की गहरी अभिव्यक्ति कर जाता हैं / " मैं ना रहूंगी लेकिन ... गूंजेंगी आहें मेरी गाँव में ... अब ना खिलेगी सरसों ... अब ना लगेगी मेहँदी पांव में......!!! " इन लाइनों के आते न आते प्रिया जी की सुनी आँखों का अपलक आसमान को निहारना एकसाथ जाने कितना कुछ कह जाता है ... यह उनके ही अभिनय के बूते की बात है /
ऐसी स्थितियां जीवन में जब-जब आये... अकेला बिलकुल महसूस न कीजियेगा .. हाँ भाई .. ध्यान करना सीखो ....अपनी साँस को अपना मित्र बनाओ ... वह साथ नहीं छोड़ेगा मरते दम तक ... .... खूब भला हो !!!
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