पीर परायी जाणे रे ... ..
गाँधी जी की आंतरिक शक्ति थी उनका " आध्यात्मिक होना " ... उनकी यह आध्यात्मिक शक्ति सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के भेद और सम्प्रदायों के बाहरी छिलकों जो की प्रायःभिन्न-भिन्न होते हैं और विवादों का भी कारण बनते हैं ..इन सबसे ऊपर उठकर हर एक सम्प्रदाय के सार को धारण करने में निहित थी .
वे अपने जीवन काल में वे इसी आध्यात्मिक शक्ति का विस्तार करते नज़र आते हैं ... सम्प्रदायों के बाहरी छिलके या कहे आडम्बर उन्हें कभी भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पायें ... सार को अपनाने की उनमें गजब की तेजी थी ... यही और यही एक कारण हैं की वे देश - समाज की सीमाओं से परे आज सारे संसार के आदर्श हैं ... उनके चले मार्ग को बहुतेरे लोग अच्छा पाते हुए भी उस पर कदम दो कदम चलकर अकसर थक जाते हैं ... या फिर कोई नया मार्ग खोजने लगते हैं ... सत्य के मार्ग मजबूती से चलने के दौरान नए-नए आये लोगों का नैतिक-बल ठीक हुआ भी तो आतंरिक अध्यात्मिक बल तो अकसर आधा -अधुरा ही होता हैं .....और वे सचखंड की यात्रा के दरमियाँ अपने अन्दर आवश्यक आध्यात्मिक शक्ति के विकास के बारें में न तो सोचते हैं ... और न ही उन्हें इसका कोई इल्म ही होता हैं कि अपने भीतर आध्यात्मिक शक्ति को कैसे जागृत किया जाएँ ... या जो भी थोड़ी बहुत आध्यात्मिकता हैं उसका कैसे इजाफा किया जाएँ.
जिस किसी में आध्यात्मिकता का ज्यूँ -ज्यूँ विकास होता जाता हैं त्यूं-त्यूं उसके अन्दर अभय , मैत्री , करुणा और त्याग का अभूतपूर्व विकास होता जाता हैं ... फिर ऐसा इन्सान गजब का उर्जावान होकर , तत्काल और सही निर्णय करने के अद्वितीय कौशल से भर-भर उठता हैं . सचखंड की यात्रा में प्रारंभ में शारीरिक और नैतिक बल से काम चल सकता हैं ... पर आध्यात्मिक बल की कमी हो तो आगे की राह मुश्किल होना तय हैं.
आध्यात्मिकता से सराबोर इन्सान फिर हर परिस्थिति में समता में समाहित-सा होकर एक गजब के संतुलन के साथ कुछ यूँ जीता हैं की उसका जीवन बहुतों के हित-सुख का कारण बन जाता हैं ... ऐसा इन्सान एक तरह से फरिश्तों की निगेहबानी में रहता हैं .
गांधीजी के जीवन को अगर ध्यान से देखे तो इस अध्यात्मिक आतंरिक शक्ति के दर्शन हमें होते ही हैं .. इसलिए शायद गाँधी जी को गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि से पुकारा था ... जबकि इस विशेषण से उन्हौने हमेशा परहेज ही किया .
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