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शनिवार, 30 जून 2012

पीर परायी जाणे रे ...


पीर परायी जाणे रे ... ..




     गाँधी जी की आंतरिक शक्ति थी उनका " आध्यात्मिक होना "  ... उनकी यह आध्यात्मिक शक्ति सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के भेद और सम्प्रदायों के बाहरी छिलकों जो की प्रायःभिन्न-भिन्न होते हैं और विवादों का भी कारण बनते हैं ..इन सबसे ऊपर उठकर हर एक सम्प्रदाय के सार को धारण करने में निहित थी .

                 वे अपने जीवन काल में वे इसी आध्यात्मिक शक्ति का विस्तार करते नज़र आते हैं ... सम्प्रदायों के बाहरी छिलके या कहे आडम्बर उन्हें कभी भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पायें ... सार को अपनाने की उनमें गजब की तेजी थी ... यही और यही एक कारण हैं की वे देश - समाज की सीमाओं से परे आज सारे संसार के आदर्श हैं ... उनके चले मार्ग को बहुतेरे लोग अच्छा पाते हुए भी उस पर कदम दो कदम चलकर अकसर  थक जाते हैं ...  या फिर कोई नया मार्ग खोजने लगते हैं ... सत्य के मार्ग मजबूती से चलने के दौरान नए-नए आये लोगों का नैतिक-बल  ठीक हुआ भी तो आतंरिक अध्यात्मिक बल तो अकसर आधा -अधुरा ही होता हैं .....और वे सचखंड की यात्रा के दरमियाँ अपने अन्दर आवश्यक आध्यात्मिक शक्ति के विकास के बारें में न तो सोचते हैं ... और न ही उन्हें इसका कोई इल्म ही होता हैं कि अपने भीतर आध्यात्मिक शक्ति को कैसे जागृत किया जाएँ ... या जो भी थोड़ी बहुत आध्यात्मिकता हैं उसका कैसे इजाफा किया जाएँ.

              जिस किसी में आध्यात्मिकता का ज्यूँ -ज्यूँ विकास होता जाता हैं त्यूं-त्यूं उसके अन्दर अभय , मैत्री , करुणा और  त्याग का अभूतपूर्व विकास होता जाता हैं ... फिर ऐसा इन्सान गजब का उर्जावान होकर , तत्काल और सही निर्णय करने के अद्वितीय कौशल से भर-भर उठता हैं . सचखंड की यात्रा में प्रारंभ में शारीरिक और नैतिक बल से काम चल सकता हैं ...  पर आध्यात्मिक बल की कमी हो तो आगे की राह मुश्किल होना तय हैं.

             आध्यात्मिकता से सराबोर इन्सान फिर हर परिस्थिति में समता में समाहित-सा होकर एक गजब के संतुलन के साथ कुछ यूँ जीता हैं की उसका जीवन बहुतों के हित-सुख का कारण बन जाता हैं ... ऐसा इन्सान  एक तरह से फरिश्तों  की निगेहबानी में रहता हैं .

        गांधीजी के जीवन को अगर ध्यान से देखे तो इस अध्यात्मिक आतंरिक शक्ति के दर्शन हमें होते ही हैं .. इसलिए शायद गाँधी जी को गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि से पुकारा था  ... जबकि इस विशेषण से उन्हौने हमेशा परहेज ही किया . 


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मंगलवार, 26 जून 2012

ये कौन सा दयार हैं ?

ये कौन सा दयार हैं ... ?







        जिंदगी के सफ़र में हमेशा अपनी मर्जी कहाँ चलती हैं ! ... और ना ही हमेशा चलती हैं जिन्दगी की  गाड़ी समतल सड़क पर ... उबड़ -खाबड़ और पथरीली राहों से सामना होना जिंदगी का दस्तूर हैं ... कभी कभी जिंदगी की गाड़ी ऐसे मकामों से गुजरती हैं ... जहाँ पंहुच कर मन थोडा - सा ठहर कर फिर आगे बढना चाहता हैं ... उस मक़ाम की मिटटी की महक , उस जगह की संवेदनाएं फिर कई अनकही अनसोची तस्वीरों को बायोस्कोप की मानिंद आँखों के  सामने से गुजार देता हैं ... फिर उस जगह से , उस जगह की हवा से , वहां की खुशबु से , दिल में अजीब सी बैचैनी और अजीब सा सुकून एक साथ दस्तक देता हैं ... मन कुछ देर के लिए ही सही उस पल को जी भर कर जीना चाहता हैं .


                फिल्म " उमराव जान "और रेखाजी एक दुसरे का पर्याय हैं ... इस फिल्म में अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ अदाकारी से इस अदाकारा ने एक ऐसा मक़ाम बनाया हैं ... जहाँ जिंदगी की गाड़ी तो चल रही जान पड़ती हैं पर चक्के मानों थमे हुए से हैं ... दिमागी ख्यालों को अभिनय के द्वारा हकीकत की तरह पेश करना ...वक्त के एक अदने से हिस्से का एक एक पल ... हर अदा से  ..बड़ी लगन से ... हर झंकार से ... हर छाया से ... हर प्रकाश से ...फिल्म की एक-एक फ्रेम पर साफ नजर आता हैं ... कभी नहीं लगता हम कैमरे की नजर से देख रहे हैं ... बल्कि यूँ लगता हैं कि कैमरा वही दिखा रहा हैं ... जो हम बस देखना चाहते हैं .

                            मुज्जफ़र अली साहब का नायब निर्देशन , खैय्याम साहब की बेमिसाल मौसिकी,  सहरयार साहब का नगमा और आशाजी की खनकती आवाज़ ने इस गीत में खूब रंग भरे हैं ... कोई जल्दी - बाजी नहीं ... हर रंग बड़ी खूबसूरती से कुछ यूँ भरे हैं की ... हर रंग अपना नया रंग दिखा रहा हैं . 

ना वश ख़ुशी पे हैं जहाँ , ना गम पे इख्तेयार हैं .
ये क्या जगह हैं दोस्तों , ये कौन सा दयार हैं /

               तमाम उम्र का हिसाब तो जिन्दगी मांगती ही हैं ... और देते रहेंगे हिसाब आहिस्ता - आहिस्ता ... फ़िलहाल ये गीत सुने ... फिर मिलेंगे  !!! 

शुक्रवार, 1 जून 2012

थोडा सा नेक हूँ ..!



थोडा-सा नेक हूँ ...




                   थोडा-सा नेक हूँ ... थोडा बेईमान हूँ ... कितनी दुर्लभ सहजता ... इतनी सहजता से अपनी ओर निहारने के जाने कितने मौके हम गँवा देते है ... सहजता बड़ी तेजी से सफाई का काम करती हैं ... सहज और सरल इन्सान फिर कुटिल नहीं रह जाता ... कुटिलता फिर आसपास भी नहीं फटकती ... ऐसा इन्सान फिर फरिश्तों की निगेहबानी में रहता हैं ... फिर बहते पानी की मानिंद उसका रास्ता कुछ यूँ बनता जाता हैं की रुकने की ,  थकने की संभावनाएं क्षीण होकर रह जाती हैं / अगर कहीं रस्ते में रूकावट आयें भी तो कल-कल करता हुआ उसके बगल से निकल जाता हैं / कोई अवरोध उसे काटता हैं ,  दो टुकड़े करता हैं ,  तो कटकर भी अवरोध के आगे बढता हुआ फिर जुड़ जाता हैं ... और फिर वैसे का वैसा होकर बह निकलता हैं /  कोई अवरोध उसे दीवार बन रोके तो खामोश रहकर अपना स्तर उठाकर उस बाधा को बिना हानि पहुंचाए अद्भुत सहजता से फिर आगे बढ जाता हैं / कुटिलता कठोर हैं , सरलता मृदुता हैं  /  कुटिलता अभिमानता हैं, सरलता निरभिमानता / सहजता को किसी ताज की , न ही किसी राज की जरुरत पड़ती ... वो निपट अकेली ही काफी हैं /

 
                                 " मदर-इंडिया " फिल्म का यह गीत नौशाद साहब के सहज सुमधुर संगीत की सुर लहरियों के मंद-मंद झोंकों से बड़ी सफाई के साथ दिलों पर जमीं धुल को झाड़ता पोंछता हुआ ...  उसकी चमक को उजास की सतरंगी किरणों तले लाकर कब छोड़ देता हैं ... पता ही नहीं चलता / शकील बदायूनी जी की रचना बड़ी साफगोई से जीवन के इस पहलु को उजागर करती जाती हैं /
                             
                    गीत का फिल्मांकन भी ध्यान से देखें तो ...  बस गीत की धुन के साथ बहता हुआ-सा जान पड़ता हैं / सुनील दत्त साहब का दमदार और सहज अभिनय और गुमनाम सहकलाकार वत्सला कुमठेकर जी का डर की आहट पर भी विस्मयकारी सहजता के साथ हैरान कर देने वाली ख़ामोशी का मौलिक प्रगटीकरण अद्भुत हैं ...जो दृश्य की जान भी हैं /

                             रफ़ी साहब की सदाबहार आवाज़ इस गीत में कई और खूबियों के साथ हाज़िर हैं ... सुने सुनाएँ ... पर हाँ सहजता को जरूर अपनाएं ... फिर मिलेंगे !!